महाराज धृतराष्ट्र ने भगवान वेदव्यास जी महाराज से पूछा, ‘‘महाराज! मेरे सौ पुत्र मेरे सामने मारे गए, बड़ा आश्चर्य है। मुझे अपने पिछले सौ जन्मों का स्मरण है कि मैंने एक भी पाप उनमें नहीं किया, फिर भी मेरे सौ बेटे क्यों मरे मेरे सामने?’’
व्यास जी बोले, ‘‘अरे मूर्ख! बस तू तो सृष्टि जब से बनी है, तब से जन्म ले रहा है, न जाने कब क्या किया तूने?’’
धृतराष्ट्र बोले, ‘‘तो महाराज! बताओ।’’
उनके अंदर का अंधेरा दूर हो चुका था। व्यास जी ने बताया कि सौ जन्मों से पूर्व तू भारत वर्ष का एक बड़ा ही प्रतापी और धार्मिक राजा था। तब रामेश्वरम् को जाते हुए मान सरोवर के हंसों ने तेरे बाग में अपने परिवार के साथ बसेरा किया। एक हंसिनी गर्भवती थी। उसका पति हंस तुम्हारे पास आया और तुमसे निवेदन किया कि मैं अपनी गर्भवती पत्नी को बाग में छोड़े जा रहा हूं और वह हंस रामेश्वरम चला गया। इधर उस हंसिनी ने सौ बच्चों को जन्म दिया। तुमने उन्हें चुगने के लिए मोती दिए। एक दिन तुम्हारे रसोइए ने एक हंस के बच्चे को पकाकर तुझे खिला दिया। तुम्हें वह बड़ा स्वादिष्ट लगा और तुमने बिना विचार किए उसे आज्ञा दी कि इसी प्रकार का मांस नित्य पकाया जाए। अब देखो, जीभ इंद्रिय ने बल पकड़ा, तुमने यह भी नहीं पूछा कि यह क्या है? कहां से प्राप्त होता है, तुम मोह में अंधे हो गए और रोज उसी मांस की इच्छा करने लगे और इस प्रकार उस हंसिनी के मोती चुगने वाले सौ के सौ बच्चों को तुम खा गए। अब वह हंसिनी अकेली रह गई।
हंस रामेश्वरम-यात्रा से वापस आया तो हंसिनी से पूछा कि यह क्या और कैसे हुआ? उसने कहा कि राजा से ही पूछो। हंस ने राजा से कहा कि तुमने मेरे सौ बच्चों का मांस खा लिया? राजा ने रसोइए को बुलाकर पूछा। उसने कहा कि महाराज! यह तो आपकी ही आज्ञा थी कि इसी को नित्य बनाया करो। राजा धर्मात्मा था, परंतु इस भयंकर पाप से बड़ा घबराया। तब हंस-हंसिनी ने कहा कि तुमने अंधे होकर यह काम किया, तू अंधा हो जाएगा और तेरे सामने ही तेरे सौ पुत्र मरेंगे। ऐसा कहकर उन्होंने प्राण त्याग दिए।
व्यास जी बोले, ‘‘हे राजन! सौ जन्म तक तू राजा और वह रानी एक साथ नहीं हुए। अब तुम दोनों इस जन्म में राजा और महारानी बने हो तो यह घटना घटित हुई है और उस जन्म के उस कर्म का फल भोगना पड़ा।’’