अगर आपको किसी देश के हितों को लेकर उसकी सत्ता के आकांक्षी प्रतिद्वंद्वी दलों के बीच सदाबहार सहमति बनाने के गुर सीखने हों तो दुनिया का महानतम लोकतंत्र होने का दावा करते हुए उसका चौधरी बने रहने के लिए कुछ भी उठा न रखने वाले अमेरिका से सीखना चाहिए. बशर्ते वह इसे अपने हितों के प्रतिकूल समझकर सिखाने से मना न कर दे और अनुकूल मानकर उसे सिखाने को तैयार हो जाए.
दरअसल, अमेरिका इस मायने में दूसरे देशों से बहुत अलग है. दूसरे देशों में कोई भी पार्टी या सरकार देशहित की अपनी परिभाषा को, लाख पापड़ बेलकर भी, अपने प्रतिद्वंद्वियों/विरोधियों के गले के नीचे नहीं उतार पाती. वे प्रायः हर मौके पर उसकी परिभाषा में मीन-मेख निकालते हैं और नहीं निकाल पाते तो निकालने के फेर में तो रहते ही हैं. लेकिन द्विदलीय राष्ट्रपति शासन प्रणाली वाले अमेरिका में ऐसा नहीं होता. वहां उसके ‘देशहित’ इतने ‘सुस्पष्ट’ और ‘परिभाषित’ हैं कि रिपब्लिकन सत्ता में हों या डेमोक्रेट, वे इस ओर से निश्चिंत होकर उनके पक्ष में ‘चित भी मेरी, पट भी मेरी और अंटा मेरे बाबा का’ करते रहते हैं कि प्रतिद्वंद्वी उसे लेकर उनकी बखिया उधेड़ने लग जाएंगे.
दूसरे शब्दों में इस बात को इस तरह भी कह सकते हैं कि अमेरिका में सत्ता के दोनों प्रतिद्वंद्वी दल राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा ‘अमेरिका फर्स्ट’ का नारा देने के बहुत पहले से ‘अमेरिका फर्स्ट’ करते आ रहे हैं. उनके अमेरिका फर्स्ट के चक्कर में दुनिया में कितना भी और कुछ भी बर्स्ट क्यों न हो जाए, उन्हें कभी कोई फर्क नहीं पड़ता. तभी तो न अमेरिका को मिली हुई ‘विस्तारवादी’ की ‘पदवी’ नई है, न दूसरे देशों में बेजा दखल देकर वहां की नापसंद सरकारों को (भले ही वे लोकतांत्रिक ढंग से चुनकर आई हों) जैसे भी संभव हो, साम-दाम-दंड-भेद बरतकर गिराने व अपनी पसंद की सरकारें बनाने के लिए कुछ भी कर गुजरने की तोहमत.
जानकारों को मालूम है कि उसके यहां यह सब इस कदर देशहित में माना जाता है कि इसे लेकर उसके सत्ताधीशों व उनके प्रतिद्वंद्वियों में कतई मतभेद नहीं होते और कभी हो भी जाएं तो महज मामूली और तकनीकी किस्म के होते हैं. अलबत्ता, उसके कई विवेकवान बुद्धिजीवी और समाज व संस्कृतिकर्मी उनकी किसी भी दुर्नीति के विरुद्ध मोर्चा खोलने में परहेज़ नहीं करते.
इस लिहाज से देखें तो डोनाल्ड ट्रंप इन दिनों अमेरिकी हितों की रक्षा के लिए मनमाने टैरिफ की राह पकड़कर जिस तरह ‘युद्वम देहि’ के उद्घोष पर आमादा हैं, उसे महज उनकी अहमकाना शरारत या वहशत समझना गलत होगा, हालांकि अभी कई जाने-माने प्रेक्षक तक ऐसा ही समझ रहे हैं.
उन्हें कम से कम इतना तो समझना चाहिए कि अपनी इस शरारत के बावजूद ट्रंप अपने देश में, कुछ विरोध प्रदर्शनों के बावजूद अपने प्रतिद्वंद्वियों की ओर से कोई बड़ी चुनौती नहीं झेल रहे. फिर वे जो कुछ कर रहे हैं, उसे उस परंपरा की ही नई कड़ी क्यों न माना जाए, जिसके तहत अतीत में अमेरिका अपने स्वार्थों के मद्देनजर बार-बार अपनी नीतियां बदलता रहा है. यहां तक कि उसे इस काम को छल के स्तर तक ले जाने से भी परहेज नहीं रहा है. दुनिया के वर्तमान और भविष्य पर उसका कितना भी नकारात्मक प्रभाव क्यों न पड़े.
ट्रंप के इस कदम को इसी रूप में बेहतर ढंग से समझा जा सकता है कि जैसे ही अमेरिका ने देखा कि कोई तीन दशक पहले उसके द्वारा अपनी चौधराहट बरकरार रखने के लिए प्रवर्तित एकतरफा भूमंडलीकरण उसके लाभों को निचोड़ते रहने की हर कोशिश के बावजूद उसके बहुत काम का नहीं रह गया है, उसने उसकी खाल खींचकर उसमें भूसा भरने का काम और संरक्षणवाद को फिर से पालने-पोसने की प्रक्रिया शुरू कर दी. यह भूलकर कि दुनिया को संरक्षणवाद से विरत करने के लिए ही उसने सायास भूमंडलीकरण का परचम लहराया था.
गौरतलब है कि पिछले तीन दशकों में अमेरिका के रिपब्लिकन और डेमोक्रेट किसी भी खेमे ने भूमंडलीकरण की तब तक दबे स्वर में भी आलोचना नहीं की, जब तक वह ‘अमेरिकी हितों का सच्चा साधक’ बना रहा.
ट्रंप का अपने पिछले कार्यकाल में ‘अमेरिका फर्स्ट’ का नारा देना इस बात का सबसे बड़ा संकेत था (कई महानुभावों ने अनेक स्वार्थों के दबावों में तब जिसे ठीक से पढ़ने की तकलीफ़ नहीं उठाई) कि अब दुनिया के चौधरी का मन भूमंडलीकरण से भर गया है और वह उसके अंत की घोषणा के बहाने ढूंढ रहा है. ब्रिटेन के प्रधानमंत्री किएर स्टार्मर और सिंगापुर के प्रधानमंत्री लारेंस वोंग, जो अब मान रहे हैं कि भूमंडलीकृत बाजार व्यवस्था का अंत सन्निकट है, उसी समय ऐसा समझ जाते तो बेहतर होता.
लेकिन आम तौर पर यह समझने से तब भी परहेज ही किया जाता रहा, जब ट्रंप चुनाव हारकर सत्ता से बाहर हो गए और उनकी जगह आए नए अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने अन्य अनेक मामलों में उनसे असहमतियों के बावजूद उनके ‘अमेरिका फर्स्ट’ को बहुत नहीं छेड़ा. यह परहेज न किया जाता तो अब ट्रंप का ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’ का जाप और टैरिफ वार छेड़कर अपने ही देश द्वारा प्रवर्तित विश्व व्यापार व्यवस्था को उलट-पलट कर देने का ‘दुस्साहस’ उतना अप्रत्याशित नहीं लगता, जितना लग रहा है.
यह दुस्साहस सच पूछिए तो उनके लिए ही ज्यादा अप्रत्याशित है, जिन्होंने अब तक यह माने रखा कि अमेरिका ने भूमंडलीकरण की व्यवस्था को बेहद सदाशयता से प्रवर्तित किया था, न कि इस बदनीयती के साथ कि वह हमेशा उसके वर्चस्व की रक्षक बनी रहेगी. लेकिन अप्रत्याशित हो या प्रत्याशित, ट्रंप के इस कदम की बदनीयती तो साफ है कि जैसे ही भूमंडलीकरण की व्यवस्था के अंतर्विरोध थोड़े गहरे होकर अमेरिकी राष्ट्रीय स्वार्थों के आड़े आने लगे, अमेरिका ने अपने को फिर से ग्रेट बनाने का खोल ओढ़ लिया है, जबकि भूमंडलीकरण भी अपने वक्त में उसके प्रभुत्व का ही उपक्रम था. अमेरिका को उससे भी अपने ग्रेट और ग्रेट बनने की ही उम्मीद थी.
तभी तो उसने यह राग अलापकर कि इसके अलावा कोई राह ही नहीं है (देयर इज नो आल्टरनेटिव), दुनिया भर के गरीब व विकासशील देशों पर भूमंडलीकरण की मनुष्यद्रोही व सर्वाइवल आफ द बेस्ट की पुरस्कर्ता नीतियों को एकतरफा तौर पर थोप दिया था.
आज सुविदित है कि तब उसने कैसे इन नीतियों के पक्ष में अमीर देशों को एकजुट कर गरीब व विकासशील देशों को अपनी राष्ट्रीय स्वावलंबन और आत्मनिर्भरता की नीतियां त्याग देने को विवश किया था. थोड़े से शुरुआती लाभों के बाद ये नीतियां गरीब देशों को नई मुश्किलों में डालने और उनका हाल बुरा करने लगीं तो इन पर पुनर्विचार की मांगों को तब तक अनसुना किया जाता रहा, जब तक ऐसा करना अमेरिकी वर्चस्व को बढ़ाने में सहायक बना रहा.
कैसे भूला जा सकता है कि भूमंडलीकरण के तहत अमीर देशों और उनकी कंपनियों की बड़ी पूंजी के मुक्त प्रवाह के मार्ग की सारी बाधाएं दूर कर दी गईं, जबकि गरीब व विकासशील देशों की श्रमशक्ति को वैसी ही बेड़ियों में जकड़े रखा गया, अभी कुछ दिनों पहले ट्रंप ने कथित अवैध प्रवासियों को जैसी बेड़ियों में जकड़कर भारत वापस भेजा था.
इस दौरान अमेरिकी छतरी के नीचे प्रायः सारे अमीर देशों ने अपने देश के सामाजिक ताने-बाने की रक्षा के नाम पर अपनी सीमाओं में श्रमशक्ति के मुक्त प्रवाह पर वांछित-अवांछित ढेरों पाबंदियां आयत किए रखीं और उसके बरक्स बड़ी पूंजी को इतनी उन्मुक्त हो जाने दिया कि देशों की सीमाओं को कौन कहे, उनकी संप्रभुता व राजसत्ता भी उसे रोक-टोक न सकें और वह सुभीते से उनका अतिक्रमण करती जाए. दुनिया का इतिहास गवाह है कि अमेरिका को इसमें कभी कुछ भी अनुचित नहीं लगा. भले ही इससे किसी देश का सामाजिक आर्थिक ताना-बाना बिखर या टूट जाए और उसके श्रमिकों के समक्ष पूंजी और पूंजीपतियों की अधीनता स्वीकार करने के अलावा कोई विकल्प नहीं रह जाए.
इसके उलट निवेशकों के लिए हर देश में हर समय व हर हाल में गलीचे बिछे रहें और नागरिकों की हेठी की जाती रहे. शरणार्थियों के लिए कहीं भी शरण मुमकिन न रह जाए और जिनके पास केवल श्रम की ही पूंजी हो, वे शरणार्थियों से भी बुरा बर्ताव झेलने को अभिशप्त हो जाएं. उनके अपने देश में भी लंबे संघर्षों से अर्जित उनके अधिकारों में निवेशकों के लिए सुविधाजनक कटौतियों में कुछ भी अनुचित नहीं समझा जाए.
यहां एक और बात गौरतलब है. यह कि आज झुंझलाया हुआ अमेरिका उस विश्व व्यापार संगठन के चलते रहने के लिए जरूरी अपना योगदान तक बंद करने पर आमादा है, जिसे भूमंडलीकरण के तीन दशकों में अपनी कठपुतली बनाए रखने के उसने कुछ कम प्रयत्न नहीं किए. उसे कठपुतली बनाने की उसकी कोशिशों के ही फलस्वरूप विश्व व्यापार संगठन में विकासशील देशों के लिए जरूरी फैसले तो तारीख दर तारीख टलते रहते थे, मगर अमीर देशों के लिए हितकारी फ़ैसले तुरत-फुरत ले लिए जाते थे.
इतना ही नहीं, भेदभाव की अति यह कि अमेरिका खुद तो अपने किसानों को हर महीने भारी भरकम सब्सिडी देता रहा, लेकिन दूसरे देशों को ऐसा न करने देने के लिए हर हथकंडा अपनाता रहा. इसीलिए भारत में अभी भी किसानों को मामूली-सी किसान सम्मान निधि और उर्वरकों आदि पर मामूली-सी सब्सिडी मिलती है. तिस पर विडंबना यह कि भारत अब तक अपनी जिस कृषि व्यवस्था को विश्व व्यापार संगठन के खराब नियमों से बचाने की चुनौती झेलता आ रहा था, अब वह ट्रंप की मनमानी से पैदा हुई अराजकता की चुनौती के सामने आ खड़ी हुई है.
जानकारों के अनुसार आगे चलकर इस अराजकता की चुनौती इतनी बड़ी हो सकती है कि विश्व व्यापार संगठन के खराब नियम अच्छे लगने लगें.
एक और विडंबना यह कि आज अपने स्वार्थों की बिना पर नीतिबदल से ज्यादा नीतिध्वंस पर आमादा अमेरिका यह समझने को भी तैयार नहीं कि भूमंडलीकरण की नीतियां अब उसे वांछित फल नहीं दे रहीं तो इसके कारण उसके द्वारा उनके बदनीयत, दोषपूर्ण और असंगत क्रियान्वयन में भी छिपे हो सकते हैं. वह इस सवाल का सामना कर लेता तो भी सही निष्कर्ष पर पहुंच सकता था कि इसी दौर में चीन ने उन्हीं नीतियों का खुली आंखों से और सावधानीपूर्वक क्रियान्वयन करके अपने को उसके लिए बड़ी चुनौती में बदल दिया है. दूसरी ओर भारत आत्मसमर्पण की मुद्रा अपनाकर अपने शुरुआती लाभों को भी गंवा देने के कगार पर जा पहुंचा है.
आज भारत के जो सत्ताधीश भूमंडलीकरण की नीतियों और अमेरिका दोनों के समक्ष आत्मसमर्पण की मुद्रा में हैं, देश में भूमंडलीकरण का आगाज हो रहा था तो वे तत्कालीन पीवी नरसिम्हाराव सरकार पर ऐसे ही आत्मसमर्पण के आरोप लगाकर उसे कोसा करते थे.
इधर अपने भारत में
वे कहते थे कि इस सरकार ने अमेरिका और उसके पिछलग्गू विकसित देशों के दबाव में उपनिवेशवादी व जनविरोधी गैट व डंकल प्रस्तावों के समक्ष जैसा ‘आत्मसमर्पण’ कर रखा है, उसके चलते अंदेशा है कि कहीं देश, खासकर उसकी संसद की संप्रभुता ही संपूर्ण न रह जाए और छब्बीस जनवरी, 1994 हमारा आखिरी गणतंत्र दिवस सिद्ध हो जाए.
तब वे बेहिचक भूमंडलीकरण को विकसित देशों द्वारा प्रवर्तित, उनकी ही हितसाधक, उनकी पूंजी के प्रति अति की हद तक उदार, श्रमजीवियों के लिए उतनी ही अनुदार और इस कारण शोषण व गैरबराबरी की पोषक बताते थे. यह भी कहते थे कि विदेशी पूंजी का बेरोक-टोक प्रवाह सुनिश्चित करने की दिशा में आगे बढ़कर इस सरकार ने एक ऐसे अर्थतंत्र की विधिवत स्थापना का श्रीगणेश कर दिया है, जो राजनीति से नियंत्रित होने के बजाय खुद उसे नियंत्रित करने यानी राजसत्ता की शक्तियों के अतिक्रमण का अभिलाषी है.