जब कभी व्यक्ति के जीवन में परिस्थितियां नियंत्रण से बाहर हो जाती हैं, दिल और दिमाग में आशंकाओं के बादल गहरा जाते हैं। ऐसे में कमजोर मनोबल के चलते आदमी मानसिक दृष्टि से टूट जाता है और इसका प्रभाव शारीरिक तौर पर भी स्पष्ट दिखाई देने लगता है। अनिष्ट की आशंका आमतौर पर सकारण होती है, लेकिन अत्यधिक विचारशील होने के चलते कई बार अकारण भी हो जाती है। कभी-कभी तो अपने ही विचारों में खोकर इंसान अनजानी आशंका से भी घिर जाता है, जिसे वह स्पष्ट तौर पर परिभाषित नहीं कर सकता। बस, ऐसे ही और यों ही उसे ऐसा प्रतीत होने लगता है कि उसके साथ कुछ गलत घटने वाला है।
अनेक अवसरों पर इंसान की एकतरफा सोच उसे तमाम तरह की आशंकाओं के घेरे में ले लेती है। कभी-कभी तो विचार-चक्र का सिलसिला ऐसा चलता है कि बिना किसी ठोस कारण के भी आदमी भारी अनिष्ट की आशंका से घिर जाता है। ऐसे मामले आसपास देखे जा सकते हैं जिनमें किसी गंभीर बीमारी के साधारण लक्षण जैसा कुछ पाए जाने पर भी खयालों ही खयालों में अपने जीवन की पारी समाप्त होने की आशंका से त्रस्त हो जाता है। चाहे यह उसकी भ्रांति हो कि उसे गंभीर रोग है। वैसे अनेक अवसरों पर देखा गया है कि गंभीर बीमारी के प्रारंभिक लक्षण पाए जाने पर भी आदमी परिजनों से यह बात छिपा कर चलता है और भीतर ही भीतर घुलने लगता है।
समस्या चाहे जो हो लेकिन सबका समाधान है
ऐसे में जब कभी आदमी आशंकाओं के बादल से घिर जाता है, सीधे तौर पर उसकी कार्यक्षमता प्रभावित हुए बिना नहीं रहती। कई बार ऐसा भी होता है कि जरूरत से ज्यादा जानकारी किसी के लिए अपने जीवन में भारी पड़ सकती है। इसलिए यह अत्यंत आवश्यक हो जाता है कि नकारात्मक तथ्यों के प्रति काफी हद तक तटस्थ दृष्टिकोण रखना चाहिए। दरअसल, हर एक समस्या के निवारण के लिए सामाजिक परिवेश में अलग-अलग प्रकार के प्रकल्प हुआ करते हैं। सबका अपना-अपना कार्य क्षेत्र होता है और अपनी अपेक्षित भूमिका के निर्वहन के लिए ये पूरी तरह से पारंगत हुआ करते हैं। सीधी-सी बात है कि हमें अपने मर्ज का डाक्टर बनने का प्रयास नहीं करना चाहिए।
समस्या चाहे जो हो, लगभग हर समस्या का समाधान है। इसलिए जो समस्या का निराकरण करने में पूर्ण रूप से सक्षम है, उसका आसरा लेना ही वह एकमात्र रास्ता है, जिसके माध्यम से हम अपनी समस्या का निवारण कर सकते हैं। अनावश्यक रूप से केवल चिंता के भंवरजाल में उलझे रहने का कोई अर्थ नहीं है। वैसे भी हर एक आदमी के कार्य क्षेत्र की अपनी अलग-अलग सीमाएं होती है। हर एक आदमी हर एक काम कर सके, यह कतई संभव नहीं। हम सामाजिक परिवेश में अपनी योग्यता के अनुरूप काम करते हुए अन्य की योग्यता के अनुरूप किए गए काम से लाभान्वित होते हैं। ठीक इसी तर्ज पर हमें यह मानकर चलना चाहिए कि केवल हम ही सर्वशक्तिमान नहीं है।
अनहोनी को टालने का प्रयास अवश्य होना चाहिए
अगर यह मान भी लिया जाए कि होनी होकर रहती है, तो अनहोनी को टालने का प्रयास अवश्य होना चाहिए। यह सोचकर चुप नहीं रहा जा सकता कि जब-जब जो-जो होना है, तब-तब वह तो होना है। दरअसल, आदमी ने हर किसी क्षेत्र में अपने विजेता भाव को दर्शाया है। चांद सितारों की दुनिया भी अब उसकी पहुंच में दिखाई देने लगी है। कल तक जो कुछ असंभव था, आज लगभग संभव होता जा रहा है। यह सब परिवर्तन लीक से हटकर किए गए प्रयासों का ही सुखद परिणाम है। ऐसी स्थिति में विपरीत परिस्थितियों में भी हमें अपना मनोबल कायम रखने की जरूरत है। मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी सशक्त मनोबल असंभव को संभव सिद्ध कर सकता है। इसलिए परिस्थितियों से जूझने का माद्दा हर चुनौती से पार ले जा सकता है।
हर तरह की गलती और अपराध को लेकर प्रायश्चित की प्रक्रिया अंतरात्मा के बोझ को उतार फेंकती है। गलती और अपराध की स्वीकृति हर हाल में सकारात्मक परिणाम की कारक सिद्ध होती है। हालांकि कुछ गलती और अपराधों को लेकर कानून और व्यवस्था में प्रावधान है, लेकिन हमारी अंतरात्मा पर बोझ बनी कोई गलती या अपराध ऐसा है जो कानून और व्यवस्था की जद में नहीं है, उसके साक्षी तो केवल हम ही हैं। इसलिए भी मन बोझिल हो जाता है। इसलिए अंतरात्मा के इस बोझ को स्वीकृति के माध्यम से उतारा जा सकता है। यकीनन ऐसा करने पर चित्त को इतना सुकून मिलता है, जिसे शब्दों के माध्यम से व्यक्त नहीं किया जा सकता।
एक प्रकार से गलती या अपराध की स्वीकृति के चलते हृदय में निर्मल परिणाम बनने लगते हैं और इंसान देखते ही देखते अजातशत्रु के रूप में अपनी छवि निर्मित कर लेता है। मनोविकार सर्वथा लुप्त हो जाते हैं और दिल और दिमाग में एक विशेष प्रकार की रचनात्मकता का बोध होने लगता है। इस स्थिति में आने पर ऐसे भाव जागृत होते हैं, जैसे मैं संसार का और संसार मेरा। कोई पराया नहीं, सब अपने ही अपने हैं। ऐसा भी लगने लगता है कि सचमुच यह जमाना जीने के लायक है। निश्चित रूप से जब आशंका के बादल छंट जाते हैं, अंतर्मन की कली-कली खिल जाती है, तब फिर हम जमाने को दोष नहीं देते और अपने मूल स्वभाव के अनुरूप उत्तम विचारों से लबरेज हो जाते हैं। यों कहें कि जिंदगी का आनंद लेने लगते हैं।