दिल्ली का लाल किला का यह नाम इसलिए पड़ा क्योंकि यह लाल पत्थरों से बना है और यह दुनिया के सर्वाधिक प्रभावशाली भव्य महलों में से एक है। भारत का इतिहास भी इस किले के साथ काफी नजदीकी से जुड़ा है। यहीं से ब्रिटिश व्यापारियों ने अंतिम मुगल शासक, बहादुर शाह जफर को पद से हटाया था और तीन शताब्दियों से चले आ रहे मुगल शासन का अंत हुआ था। यहीं के प्राचीर से भारत के प्रथम प्रधानमंत्री, पंडित जवाहर लाल नेहरू ने घोषणा की थी कि अब भारत उपनिवेशी राज से स्वतंत्र है।
मुगल शासक, शाहजहां ने 11 वर्ष तक आगरा से शासन करने के बाद तय किया कि राजधानी को दिल्ली लाया जाए और यहां 1618 में लाल किले की नींव रखी गई। वर्ष 1647 में इसके उद्घाटन के बाद महल के मुख्य कक्ष भारी पर्दों से सजाए गए और चीन से रेशम और टर्की से मखमल ला कर इसकी सजावट की गई। लगभग डेढ़ मील के दायरे में यह किला अनियमित अष्टभुजाकार आकार में बना है और इसके दो प्रवेश द्वार हैं, लाहौर और दिल्ली गेट।
लाहौर गेट से दर्शक छत्ता चौक में पहुंचते हैं, जो एक समय शाही बाजार हुआ करता था और इसमें दरबारी जौहरी, लघु चित्र बनाने वाले चित्रकार, कालिनों के निर्माता, इनेमल के कामगार, रेशम के बुनकर और विशेष प्रकार के दस्तकारों के परिवार रहा करते थे। शाही बाजार से एक सड़क नवाबर खाने जाती है, जहां दिन में पांच बार शाही बैंड बजाया जाता था। यह बैंड हाउस मुख्य महल में प्रवेश का संकेत भी देता है और शाही परिवार के अलावा अन्य सभी अतिथियों को यहां झुक कर जाना होता है।
दीवान ए आम लाल किले का सार्वजनिक प्रेक्षा गृह है। सेंड स्टोन से निर्मित शेल प्लास्टर से ढका हुआ यह कक्ष हाथी दांत से बना हुआ लगता है, इसमें 80 X 40 फीट का हॉल स्तंभों द्वारा बांटा गया है। मुगल शासक यहां दरबार लगाते थे और विशिष्ट अतिथियों तथा विदेशी व्यक्तियों से मुलाकात करते थे। दीवान ए आम की सबसे प्रमुख विशेषता यह है कि इसकी पिछली दीवार में लता मंडप बना हुआ है जहां बादशाह समृद्ध पच्चीकारी और संगमरमर के बने मंच पर बैठते थे। इस मंच के पीछे इटालियन पिएट्रा ड्यूरा कार्य के उत्कृष्ट नमूने बने हुए हैं।
किले का दीवाने खास निजी मेहमानों के लिए था। शाहजहां के सभी भवनों में सबसे अधिक सजावट वाला 90 X 67 फीट का दीवाने खास सफेद संगमरमर का बना हुआ मंडप है जिसके चारों ओर बारीक तराशे गए खम्भे हैं। इस मंडप की सुंदरता से अभिभूत होकर बादशाह ने यह कहा था ''यदि इस पृथ्वी पर कहीं स्वर्ग है तो यहीं हैं, यहीं हैं"।
कार्नेलियन तथा अन्य पत्थरों के पच्चीकारी मोज़ेक कार्य के फूलों से सजा दीवाने खास एक समय प्रसिद्ध मयूर सिहांसन के लिए भी जाना जाता था, जिसे 1739 में नादिरशाह द्वारा हथिया लिया गया, जिसकी कीमत 6 मिलियन स्टर्लिंग थी।