पैदा होते ही माँ को खा गया ऐसा दादी कहती थीं। दस साल का होते होते पिता ने दूसरी शादी कर ली। तेरे पापा पूरी तरह से नई माँ के हो गए हैं, सौतेली माँ है, नौकरी करती थी, घाट घाट का पानी पी कर आई है, उससे दूर ही रहा कर ये भी दादी कहती थीं। इसी अंतर्द्वंद्व में वह खोया खोया सा रहता।
फिर भी नई माँ की आँखों में अपने लिए सहानुभूति देखकर वो हर हाल में उनकी सहायता के लिए तत्पर रहता। धीरे धीरे नई माँ परिवार में रच बस गईं , दो छोटे भाई बहन भी आ गए वो भी अपने इन नए-पुराने रिश्तों की उधेड़बुन में खोया रहा। अभी अठारह का भी नहीं हुआ था कि पिता कि मृत्यु हो गई और उस तरुण ने नई माँ और भाई बहन की, परिवार की सारी जिम्मेदारी सहर्ष अपने कंधों पर उठा ली।पढ़ाई छोड़कर पिता की दुकान संभाल ली।
"सुनील! क्या मैं अन्दर आ जाऊँ"
" नई माँ ये आप कैसी बात कर रहीं हैं । ज़रूर आइए "।
"पहली बात,आज से तुम मुझे नई माँ नहीं, माँ कहोगे। और दूसरी बात मैंने कई जगह नौकरी के लिए आवेदन पत्र दिया है। पहले भी तो मैं नौकरी कर ही रही थी ,जैसे ही मुझे नौकरी मिल जाती है तुम अपनी पढ़ाई फिर से शुरू कर दोगे। रही दुकान,वो पहले भी रामू काका ही देखते थे अब भी वो ही देखेंगे"।
माँ!!! लेकिन दादी!
"वो सब तुम मुझ पर छोड़ दो मैं सब संभाल लूंगी। अब मैं तुम्हें खोने नहीं दूँगी"।